बच्चे प्रत्येक परिवार के सबसे महत्वपूर्ण सदस्य होते हैं। क्या हमारे बच्चों के बिना हम अपने जीवन की कल्पना सकते हैं? निश्चित ही नहीं। बच्चे हमारे जीवन में आशाएं और हर्षोल्लास लेकर आते हैं। कल्पना करें कि यदि हमारे साथ बच्चे नहीं होंगे तो हमारा क्या होगा। मानव जाति को जीवित रखने के लिए भावी पीढियां विद्यमान ही नहीं होंगी। बच्चे समुदाय और देश की परिसंपत्ति हैं।
हमारे देश में, 18 वर्ष से कम आयु का प्रत्येक व्यक्ति, चाहें वह पुरूष हो अथवा महिला, बच्चा कहलाता है। उसे उत्तरजीविता, पालन – पोषण, संरक्षण और प्रसन्न एवं स्वस्थ बचपन जीके के अधिकार है।
बच्चों को स्नेह देने, उनकी देखभाल करने तथा उनके साथ सम्मान और मर्यादा का व्यवहार किए जाने की आवश्यकता है। वे भी उसी प्रकार मनुष्य हैं जिस प्रकार वयस्क व्यक्ति और भविष्य के वयस्क भी।
जिस बच्चे की सही रूप से देखभाल और उसका सही पालन- पोषण होगा, वह बच्चा निश्चय ही एक जिम्मेदार नागरिक बनेगा और फिर पाने गाँव व देश के निर्माण में योगदान दे सकेगा। बच्चों को हमसे आज जिस प्रकार की देखभाल और व्यवहार मिलेगा उसी अनुरूप उनके भविष्य की नींव पड़ेगी और साथ ही एक सभ्य मनुष्य व समाज के सदस्य के रूप में उनके व्यक्तित्व का निर्माण होगा।
भारत में हमारी कुल जनसंख्या का लगभग 40 प्रतिशत भाग बच्चे हैं। चूंकि अधिकांश लोग गांवों में रहते हैं, गांवों में रहने वाले बच्चों की संख्या भी शहरों में रहने वाले बच्चों की तुलना में अधिक है। अत: पंचायतों के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि वे बच्चों की देखभाल, उनके संरक्षण और विकास संबंधी महत्वपूर्ण पहलुओं को समझे तथा बच्चों के श्रेष्ठ हित में आवश्यक कदम उठाएं।
बालकों और बालिकाओं की आवश्यकताएं विकास की विभिन्न अवस्थाओं और भिन्न – भिन्न होती है। उदहारण के लिए शिशुओं, युवा बच्चों और किशोरों की आवश्यकताएँ भिन्न – भिन्न होती हैं। यहाँ तक कि समान आयु – वर्गों में भी, विभिन्न सामाजिक संरचनाओं में उनकी आवश्यकताएं भिन्न-भिन्न होती है। आइए जाने कि बच्चे किस प्रकार खतरों के संभावित शिकार होते हैं।
बड़ी संख्या में बच्चों को या तो किसी आंगनबाड़ी या विद्यालय में जाने का अवसर ही प्राप्त नहीं हो पाता है, अथवा वे विभिन्न कारणों से अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। इसके कुछ मुख्य कारण हैं, उनके निवास स्थान से विद्यालय अथवा आंगनबाड़ी के बीच की एक लंबी दूरी तथा आंगनबाड़ी केंद्र अथवा विद्यालय में पोषण, स्वास्थय, देखरेख अथवा शिक्षण के अवसरों की निम्न गुणवत्ता। बालिकाओं तथा गरीब एवं निम्न जाति के परिवारों के बच्चों की निम्न उपस्थिति और विद्यालय छोड़ने की घटनाएँ उनके साथ किए जाने वाले भेदभाव का भी परिणाम हो सकती हैं। बालिकाओं के लिए पृथक शौचालयों का अभाव अथवा विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के इए मौजूद अपर्याप्त सुविधाओं के फलस्वरूप भी उनका आंगनबाड़ी और विद्यालय में नामांकन कम होता है या वे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं।
प्राय: निर्धन, अनाथ निस्सहाय बच्चों को पेट पालने के लिए और यहाँ तक कि अपने परिवार को चलाने के लिए छोटी आयु में जोखिमपूर्ण श्रम करना पड़ता है। ग्रामीण इलाकों से शहरों में में बच्चों का अवैध व्यापार भी किया जाता है। जहाँ इन बच्चों को अज्ञात परिवारों, कारखानों और ढाबों में घरेलू नौकरों के रूप में कार्य करने के लिए विवश किया जाता है और यहाँ तक कि उन्हें देह – व्यापार में भी धकेला जाता है। ऐसी परिस्थितियों में प्राय: उन्हें कई प्रताड़नायें दी जाती हैं।
ऊपर वर्णित सभी विषम परिस्थितियों में, निर्धन परिवारों के बच्चों, विशेष आवश्यकताएँ रखने वाले बच्चों तथा बालिकाओं की जोखिम का शिकार होने की संभावना अधिक होती है। अत: विशेषता: उन्हें सुरक्षा प्रदान करने के लिए हमें उनकी सहायता करने की आवश्यकता है।
ख. हमारे बच्चे कैसे सुरक्षित और स्वस्थ रहें और कैसे उनका बेहतर विकास हो?
इन समस्त मुद्दों का निराकरण करने के लिए भारत के संविधान के तहत बच्चों को विभिन्न अधकार प्रदान किए गए हैं। राष्ट्रीय तथा राज्य स्तर पर बच्चों के पक्ष में विभिन्न कानून पारित किए गए हैं तथा नीतियाँ और कार्यक्रम आरंभ किए गए हैं।
हम प्राय: देखते हैं कि बच्चों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार नहीं किया जाता और उन पर जोर से चिल्लाना और मार – पिटाई आदि एक प्रकार से स्वीकृत प्रथा ही बन गई है। कभी – कभी देखा जाता है कि जब बच्चे बाहर खेल रहे होते हैं तो कोई बड़ा व्यक्ति अकारण उनके सिर पर या पीठ पर मार देते हैं चाहें उस व्यक्ति का इरादा असमी उन्हें चोट पहूँचाने या अपमानित करने का भी हो। कभी – कभी लोग बच्चों के साथ या उनके सामने या आपस में ही गाली गलौज की भाषा का प्रयोग करते हैं। यदि हम अपने के अनुभवों को स्मरण करें तो हमें स्मरण आएगा कि हमारे माँ- बाप, अध्यापकों, पड़ोसियों या अन्य बड़े लोगों के ऐसे व्यवहार से हमें मानसिक पीड़ा और अपमान का अनुभव हुआ और कभी – कभी तो क्रोध भी आया। बच्चों के मानसिक विकास के लिए इस प्रकार का अनुभव उचित नहीं। इससे बच्चे स्वयं भी दूसरों कोगों विशेषतया: छोटे बच्चों के प्रति इसी प्रकार का व्यवहार सीखते हैं। यदि समय रहते सही कदम न उठाए जाएँ तो ऐसी परिस्थितियाँ बच्चों में आपराधिक मानसिकता पैदा कर सकती है। बच्चों के साथ इस प्रकार का व्यवहार न केवल उनके अहित में है बल्कि उनके अधिकारों हनन भी है।
भारत का संविधान देश की सभी जातियों, समुदायों तथा धर्मों से संबंधित सभी बच्चों को, चाहे वे शहरों में रहते हों या गांवों में, समान रूप से, मौलिक अधिकारों की गारंटी परदान करता है तथा यह सुनिश्चित करने के लिए कि बच्चे अपने इन अधिकारों का प्रयोग कर सकें, सरकार को यह कर्त्तव्य भी सौंपता है कि वह बच्चों के लिए विशेष कानून और योजनाएं तैयार करें।
बच्चों की देखरेख, संरक्षण और विकास के लिए हमारी सरकार द्वारा पारित प्रमुख कानून : |
बच्चों की देखरेख, संरक्षण और विकास के लिए प्रमुख कार्यक्रम : |
प्रसव पूर्व नैदानिक तकनीक अधिनियम, 1994 में पारित किया गया था तथा इसे गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व नैदानिक तकनीक अधिनियम के रूप में 2003 में संशोधित किया, जिसका उद्देश्य कन्या भ्रूणहत्या को नियंत्रित करना है। शिशु एवं दुग्ध- अनुकल्प, पोषण बोतल और शिशु खाद्य (उत्पादन प्रदाय और वितरण का विनियमन) अधिनियम, 1992 में पारित किया गया था जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि शिशु खाद्य का विनियमन हो सके तथा उसका प्रयोग उपयुक्त रूप से हो। नि: शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 में बनाया गया जिसका उद्देश्य है 6-14 वर्ष के बच्चों को आठवीं कक्षा तक नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जाए। लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (पोक्सो) उत्पीड़न के मामलों की सूचना देने तथा बाल पीड़ितों के पुनर्वास के लिए कड़े उपबंध बनाते हुए बच्चों को लैगिंक उत्पीड़न से संरक्षण प्रदान करता है। बाल श्रम प्रतिषेध और विनियमन अधिनियम, 1989 के द्वारा 14 वर्ष से कम अत्यु के बच्चों के जोखिमपूर्ण व्यवसायों में लगाने को प्रतिबंधित किया गया है। बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006 लड़कों के लिए विवाह की आयु 21 वर्ष तथा लड़कियों के लिए 18 वर्ष निर्धारित करता है। बच्चों का कम आयु में विवाह करने के लिए इसमें बड़े लोगों लिए दंड का प्रावधान किया गया है। अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम, 1956 यौन – संबंधी कार्यों के लिए महिलाओं और बच्चों को अवैध देह व्यापार के विरूद्ध सुरक्षा प्रदान करता है। किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 कठिन और जोखिमपूर्ण स्थितियों में घिरे बच्चों की देखरेख, संरक्षण और पुनर्वास का प्रावधान करता है तथा ऐसे बच्चों को भी संरक्षण प्रदान करता है जो कानून का उल्लंघन करते हैं। |
एकीकृत बाल विकास सेवाएँ (आईसीडी एस) बाल्यास्था की प्रारंभिक अवस्था में देखरेख और उस दौरान बच्चों का विकास करने के लिए महिला और विकास मंत्रालय का एक कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य पांच वर्ष की आयु से पूर्व बच्चों की मृत्यु, कुपोषण और विद्यालय छोड़ने की घटनाओं को कम करना है। आईसीडीएस के अंतर्गत प्रदान की जाने वाली सेवाएँ हैं :- अनुपूरक पोषण, टीकाकरण, स्वास्थय जाँच, बड़े अस्पतालों में भेजने संबंधी सेवाएँ, विद्यालयपूर्व शिक्षा तथा पोषण और स्वास्थय शिक्षा। सर्वशिक्षा अभियान विद्यालय शिक्षा विभाग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय का कार्यक्रम है जो 6-14 वर्ष के आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए मुफ्त गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करता है। सर्वशिक्षा अभियान के अंतर्गत प्रदान की जाने वाली सेवाओं में शामिल है- विद्यालय की सुविधा से वंचित क्षेत्रों में ने विद्यालय खोलना, विद्यमान विद्यालयों में सुविधाओं को सुदृढ़ बनाना जैसे – अतिरिक्त कक्षाएं शौचालय, पेयजल आदि, शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए शिक्षकों का प्रावधान तथा शिक्षकों की क्षमता निर्माण का प्रावधान। सर्व शिक्षा अभियान में बालिकाओं की शिक्षा तथा विशेष आवश्यकता वाले बच्चों पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया गया है। मध्याहन भोजन योजना (मिड – डे मिल) विद्यालयी शिक्षा विभाग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय का विद्यालयों में भोजन प्रदान करने के कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य विद्यार्थियों बच्चों में पोषक तत्वों की मात्रा में सुधार लाना है। इस योजना अंतर्गत प्राथमिक और उच्च – प्राथमिक कक्षाओं में बच्चों को पका हुआ पोषक भोजन उपलब्ध कराया जाता है। मध्याहन भोजन योजना ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में स्थित उन सभी सरकारी और सहायता प्राप्त विद्यालयों में क्रियान्वित की जाती है जिन्हें सर्वशिक्षा अभियान के अंतर्गत सहायता प्रदान की गई है। एकीकृत बाल संरक्षण योजना (आईसीपीएस) महिला और बाल विकास मंत्रालय की योजना है जिसका उद्देश्य कठिन परिस्थितियों में घिरे बच्चों के लिए एक संरक्षणात्मक परिवेश का निर्माण करना है। आईसीपीएस में, बच्चों संबंधी विभिन्न संरक्षण योजनाओं को विलयित करते हुए बच्चों के लिए एक सुरक्षा कवच तैयार करने का प्रयास किया गया है। आईसीपीएस के अंतर्गत संभावित लाभार्थियों तथा उनके परिवारों की पहचान की जाती है तथा बच्चों और उसके परिवार को आवश्यक सहायता उपलब्ध कराई जाति है। |
बच्चों को संरक्षण प्रदान करने तथा उनका समुचित रूप से पालन – पोषण करने में ग्राम पंचायतें एक निर्णायक भूमिका निभा सकती हैं। ग्राम पंचायत बच्चों को संरक्षण और सहायता प्रदान करते हुए लोगों की कुशलता में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है। महिलाओं और बच्चों का विकास संविधान में सूचीबद्ध उन 29 कार्यों में से एक है जिसका अंतरण पंचायती राज संस्थाओं को किया जाना है। यह सुनिश्चित करना ग्राम पंचायतों का कर्त्तव्य है कि ग्राम पंचायत क्षेत्र के सभी बच्चे लिंग, जाति और धर्म, आदि के भेदभाव के बिना उक्त संदर्भित कानूनों और योजनाओं का लाभ उठा सकें।
यदि किसी बच्चे का शोषण हो या उस पर कोई अत्याचार हो और इसकी सूचना पुलिस को न दी गई हो तो ग्राम पंचायत को पहल करके मामले की सूचना पुलिस को देनी चाहिए। यह भी महत्वपूर्ण है कि बच्चे के लैंगिक शोषण या एच.आई. वी. ग्रस्त होने की स्थिति में ग्रामपंचायत गोपनीयता बनाए रखे ताकि बच्चे को सामाजिक प्रताड़ना या उपहास का सामना न करना पड़े।
ऐसी अनके प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष भूमिकाएँ हैं जिनका निर्वहन करके ग्राम पंचायतें यह सुनिश्चित कर सकती हैं कि ग्राम पंचायत क्षेत्र के सभी बच्चे स्वस्थ रूप से जन्म लें, वे हृष्ट-पुष्ट रहें, उन्हें अच्छी शिक्षा प्राप्त हो तथा वे सुरक्षित रहें। ग्राम पंचायत बच्चों के समक्ष आने वाली विभिन्न समस्याओं की पहचान करके, उन्हें विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत प्राप्त हो सकें वाले लाभों के विषय में जन सकती हैं, उनकी आवश्यकताओं के बारे में जागरूकता फैला सकती है, उनके कल्याण के लिए आंगनबाडियों और विद्यालयों से समन्वय कर सकती है। यदि आवश्यकता हो तो ग्राम पंचायत ग्राम स्तर पर बच्चों के लिए सेवाओं की गुणवत्ता के बेहतर बनाने अथवा उनकी किसी तत्कालिक महत्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए अपनी ग्राम पंचायत निधि से योगदान भी कर सकती है या संसाधन जुटा भी सकती है।
बच्चों से संबंधित मुद्दों का निपटान करने के लिए ग्राम पंचायत स्तर पर पंचायत स्थायी समिति है। कई राज्यों के पंचायत कानूनों में महिलाओं और बच्चों के कल्याण से संबंधित कृत्यों का निर्वहन करने के लिए सामाजिक न्याय समिति का प्रावधान किया गया है। उदहारण के रूप में पश्चिम बंगाल में इसे नारी, शिशु उन्नयन और समाज कल्याण उपसमिति कहा जाता है तथा इसकी अध्यक्षता ग्राम पंचायत की एक वरिष्ठ महिला सदस्य करती है। इसके अध्यक्षता ग्राम पंचायत की एक वरिष्ठ महिला सदस्य करती है। इसके अन्य सदस्य होते हैं, आईसीडीएस पर्यवेक्षक, स्वास्थय पर्यवेक्षक, एसएचजी प्रतिनिधि तथा शिशु शिक्षा केंद्र सहायिका।
ग्राम पंचायत बच्चों के प्रति अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन विभिन्न एजेंसियों तथा अन्य विभागों जैसे महिला और बाल विकास, स्वास्थय और शिक्षा, आदि के ग्राम स्तरीय पदाधिकारियों के साथ मिलकर कार्य करते हुए निभा सकती है। ग्राम पंचायत क्षेत्र में बच्चों की देखरेख और उनके विकास सुनिश्चित करने के लिए इन विभागों के पदाधिकरियों जैसे आंगनबाड़ी कार्यकर्त्ता, एएनएम, आशा, विद्यालय शिक्षक, आदि की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिकाएँ हैं।
ऊपर उल्लिखित स्थायी समिति के अलावा, इन विभागों द्वारा ग्राम स्तर पर अनेक अन्य समितियाँ भी गठित की गई हैं। ग्राम पंचायत को इन समितियों के समन्वयन में काम करना चाहिए ताकि बच्चों का जीवित रहना, उनका संरक्षण और विकास सुनिश्चत हो सके। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण समितियाँ हैं: आंगनबाड़ी स्तर की निगरानी और समर्थन समिति (एएलएम्एससी), ग्राम स्वास्थ्य, स्वच्छता और पोषण समिति, ग्राम स्तरीय बाल संरक्षण समिति और स्कूल प्रबंधन समिति। हम इन समितियों के बारे में संक्षेप में चर्चा करते हैं।
सरपंच तथा निर्वाचित प्रतिनिधियों को मिलकर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनकी ग्राम पंचायत बाल – हितैषी ग्राम पंचायत बने। आगामी अध्यायों में हम पंचायतों की उन भूमिका की विस्तार से चर्चा करेंगे जिनका निर्वहन उन्हें बच्चों के पोषण, स्वास्थय, संरक्षण तथा साथ ही बच्चों के लिए महत्वपूर्ण मुद्दों में बच्चों की सभागिता सुनिश्चित करने के इए करना चाहिए।
बच्चों का भविष्य हद तक प्रथम 1000 दिनों में उनके पोषण की गुणवत्ता पर निर्भर करता है अर्थात माता के गर्भधारण से लेकर बच्चे के दूसरे जन्म-दिवस तक की अवधि के दौरान सही पोषण, बच्चों के भावी स्वास्थय, उनकी कुशलता और सफलता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। अन्यथा उनके शारीरिक व मानसिक विकास को लेकर गंभीर खतरे पैदा हो सकते हैं जिनकी प्राय: आपूर्ति संभव नहीं हो पाती। (स्रोत : विश्व की माताओं की स्थिति, 2012 : सेव दी चिल्ड्रेन रिपोर्ट)
स्त्रोत: पंचायती राज मंत्रालय, भारत सरकार
अंतिम सुधारित : 2/22/2020
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