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प्राकृतिक संसाधनों का संभरण,सरंक्षण और विकास

आईडब्ल्यूएमपी-घटते प्राकृतिक संसाधनों का संभरण सरंक्षण और विकास

व्यापक स्तर पर भूक्षरण और जल संसाधनों पर बढ़ता दबाव देश के लिए गंभीर चुनौती बनता जा रहा है। हालांकि इन प्राकृतिक संसाधनों को पहुंच रहे नुकसान के अनुमान अलग अलग हो सकते है, लेकिन यह पूरे यकीन के साथ कहा जा सकता है कि देश का आधे से अधिक भूभाग मृदा क्षरण और घटते जल संसाधनो के कारण भारी संकट में है। देश के वर्षा जल पर निर्भरता वाले क्षेत्रों में यह समस्या ज्यादा गंभीर है। सिंचाई की निश्चित व्यवस्था वाले क्षेत्रों में कृषि उत्पादन व्यवस्थित होने के साथ ही वर्षा जल पर निर्भरता वाले क्षेत्रो का महत्व बढ़ता जा रहा है कि यहा वर्षा जल संरक्षण से जुड़े विकास कार्यक्रमों के जरिए इन क्षेत्रों की उत्पादन क्षमता बढ़ाए जाने की संभावनाएं हैं।

शुरुआत

देश के वर्षा जल निर्भरता और भूक्षरण वाले क्षेत्रों के विकास के लिए एकीकृत जलसंभरण प्रबंधन कार्यक्रम (आईडब्ल्यूएमपी) ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से शुरू किया गया प्रमुख कार्यक्रम है। इसे भूसंसाधन विभाग की ओर से वर्ष 2009-10 से लागू किया गया है। इसमें तीन क्षेत्रीय विकास कार्यक्रमों को समाहित किया गया है, जिसमें मरूस्थल विकास कार्यक्रम (डी डी पी) सूखा क्षेत्र विकास कार्यक्रम (डी एम ए पी) और एकीकृत बंजर भूमि विकास कार्यक्रम (आई डब्ल्यू डी पी) शामिल है।

मुख्य लक्ष्य

आईडब्ल्यूएमपी का मुख्य लक्ष्य मृदा जैसे घटते प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और विकास, वनस्पति आच्छादित क्षेत्र और जल स्रोतों का संरक्षण, भूक्षरण की रोकथाम, वर्षा जल संरक्षण, भूजल के घटते स्तर को सुधारना, फसलों का उत्पादन बढ़ाना, ब्हुचक्रीय फसल और विभिन्न कृषि गतिविधियां और सतत जीविकोपार्जन गतिविधियों को बढ़ावा देकर घरेलू आय बढ़ाने के उपाय करना शामिल है। आईडब्ल्यूएमपी के तहत शामिल गतिविधियों में हरित क्षेत्र और निकासी क्षेत्र का निरूपण मृदा और आद्रता संरक्षण, वर्षा जल संरक्षण, नर्सरियों का विकास, वनक्षेत्र बसाहट, बागवानी, हरित क्षेत्र विकास और संपत्तिविहीन लोगों के लिए जीविका चलाने के उपाय करना शामिल हैं। आईडब्ल्यूएमपी के तहत भूसंसाधन विभाग की ओर से केन्द्रीय मदद के तहत 3 करोड़ 12 लाख 90 हजार हेक्टेयर भू क्षेत्र में 6622 परियोजनाओं को मंजूरी दी गयी है। आईडब्ल्यूएमपी कार्यक्रम के तहत विभाग विभिन्न राज्यों को केन्द्रीय मदद के तहत वर्ष 2009 से लेकर नवंबर 2013 तक 8240.61 करोड़ रूपए की राशि जारी कर चुका है।

परियोजना की अवधि

आईडब्ल्यूएमपी के तहत परियोजनाओ की अवधि 4 से 7 वर्ष के बीच होती है। हालांकि इन परियोजनाओं का पूरा होना अभी बाकी है लेकिन इनका असर देश के विभिन्न हिस्सों में अभी से दिखाई देने लगा है। आईडब्ल्यूएमपी के तहत जल संरक्षण के लिए बनायी गयी आधारभूत सुविधाओं के कारण परियोजना क्षे़त्र में रहने वाले किसानो के लिए जल उपलब्धता और अतिरिक्त आय अर्जित करने में मदद मिल रही है। कार्यक्रम के तहत ग्रामीण क्षे़त्र के गरीब परिवारों की आजीविका को बेहतर बनाने तथा उनकी आय बढ़ाने में मददगार साबित हुयी परियोजनाओं में निम्नलिखित प्रमुख हैं।

विभिन्न परियोजनाएं और महत्वपूर्ण उपलब्धियां

मध्यप्रदेश का उदाहरण

आईडब्ल्यूएमपी-I के तहत मध्यप्रद्रेश के दतिया तहसील में वर्ष 2009-10 में 5,527 हेक्टेयर भू क्षेत्र के लिए जलसंभरण प्रबंधन कार्यक्रम मंजूर किया गया। यह कार्यक्रम राजीव गांधी मिशन फॉर वॉटरशेड मैनेजमेंट की ओर से डेवलपमेंट अल्टरनेटिव एजेंसी के जरिए क्रियान्वित किया जा रहा है। परियोजना क्षे़त्र के तहत आने वाले एक गांव सलयापमार का 1515 हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्र में से 86 प्रतिशत खेती वाली जमीन है। गांव की कुल आबादी 1500 है। गांव में प्रत्येक किसान के पास 2.5 प्रतिशत खेत है और 1.2 प्रतिशत पशुधन है। वर्ष 2012 में गांव में 2.22 लाख रूपए की लागत से एक जलाशय का निमार्ण किया गया था जिसकी कुल क्षमता 350 घन मीटर है। इसकी मदद से गांव की 70 एकड़ भूमि में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हुयी है और कृषि क्षेत्र की उत्पादन क्षमता में 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो चुकी है। जलाशय के निचले इलाकों में पहली बार धान की खेती की जा रही है। जलाशय का असर आसपास के 27 कुओं के जलस्तर में हुयी बढ़ोतरी के रूप में भी दिखाई दे रहा है। इन कुओं का जलस्तर 7 से 8 फुट बढा है। उत्पादन क्षमता वृद्धि और आर्थिक सशक्तिकरण के लिहाज से गांव के 17 कृषक परिवारों की आजीविका की स्थिति सुधरी है। कार्यक्रम लागू होने के पहले कभी स्थितियां इतनी बेहतर नहीं हुयी थीं।

छत्तीसगढ़ का उदाहरण

छत्तीसगढ के बालोद जिले में डोंडी लोहरा ब्लॉक में आईडब्ल्यूएमपी-I परियोजना वर्ष 2009-10 में 5261 हेक्टेयर क्षेत्र में लागू की गयी। इसके तहत 5 हजार हेक्टेयर ऐसी भूमि भी है जिसका क्षरण उपचार किया जाना है। वर्ष 2012-13 के दौरान परियोजना के तहत कसई गांव में 2.92 लाख रूपए की लागत से एक रोक बांध का निर्माण किया गया। इसके पहले तक यह क्षेत्र सूखा संभावित इलाका था और बारिश के मौसम में यहां मिट्टी के क्षरण का सबसे ज्यादा खतरा रहता था। लेकिन बांध बनने के बाद न सिर्फ यहां मिट्टी का क्षरण कम हुआ है बल्कि 25 हेक्टेयर सूखा प्रभावित क्षेत्र मे सिंचाई शुरू हो चुकी है। सिचांई की व्यवस्था सुनिश्चित हो जाने से यहां धान की बुआई की उत्पादकता 12 क्यू एकड़ से बढ़कर 17 क्यू एकड़ हो गई है।

उड़ीसा का उदाहरण

पश्चिमी ओडिशा में नुआपाडा जिले के कोमना ब्लॉक के लिए आईडब्ल्यूएमपी-II परियोजना को वर्ष 2009-10 में मंजूरी दी गयी। नुआपाड़ा का इलाका पूरी तरह वर्षा जल पर निर्भर है। यहां पर्यावरण क्षरण, कम कृषि उपज, बड़े पैमाने पर विस्थापन, कर्ज बोझ की समस्या, बचत आधार का नहीं होना, कृषि ऋण और विपणन तथा अन्य सेवाओं की अपर्याप्त उपलब्धता जैसी समस्याएं हैं। ज्यादा वर्षा वाला क्षेत्र होने के साथ ही वनस्पतियों की कमी के कारण यहां भूक्षरण का स्तर काफी ज्यादा है जिसके कारण कृषि उपज भी कम है। यहां के ज्यादातर किसानों को इसी कारण मानसून की एक फसल उपज पर ही गुजारा करना पडता है । आईडब्ल्यूएमी के तहत यहां प्याज की खेती को बढावा दिए जाने के सामूहिक प्रयासों का परिणाम यह रहा कि इससे सहकारी कृषक संगठनों के जरिए कृषि क्षेत्र के लिए मुनाफा कमायी की एक सुनिश्चित व्यवस्था की जा सकी । सहकारी संगठनों के जरिए मूल्य संवर्धन भंडारण और विपणन जैसी सेवाएं उपलब्ध कराकर प्याज की खेती के व्यावसायीकरण को बढ़ावा देना किसानों की आजीविका बेहतर बनाने का एक अनुसरणीय मॉडल साबित हुआ।

अभी तक यहां महज कुछ किसानों द्वारा एक सीमित क्षेत्र में प्याज की खेती की जाती रही । हालांकि उपज औसत दर्जे की रही लेकिन जलवायु और अन्य कारक फसल के लिए अनुकूल रहे । किसान उपज होते ही बाजार में कम कीमत के बावजूद इसे बेचते रहे जबकि दूसरी ओर छत्तीसगढ़ में कारोबारी बड़े भंडारगृहों मे इनका भंडारण कर अगस्त में ऊंची कीमत होने पर इसे बेचकर अच्छी कमायी करते रहे। ओडिशा में प्याज की स्थानीय किस्म और एन-53 किस्म भंडारण गुणवत्ता के लिहाज से भी औसत दर्जे की रहती थी जिसके कारण दो महीने से ज्यादा समय तक उपज का भंडारण संभव नहीं था। दूसरा इस छोटी सी अवधि के लिए भी किसानों के पास इसके भंडारण की समुचित व्यवस्था नहीं थी। तीसरा किसानों के पास इतने समय तक इंतजार कर पाना आर्थिक कारणों से भी संभव नहीं था। ऐसा पाया गया कि हल्के गुलाबी रंग वाली प्याज की ए.एफ.एल.आर किस्म का बिना ज्यादा नुकसान के छह महीनों तक भंडारण किया जा सकता है। इस खोज ने किसानों के लिए इस किस्म की उपज से अच्छी कमायी हासिल करने मे मदद की।

आईडब्ल्यूएमपी के तहत उत्पादक सहकारी संगठनों के जरिए आजीविका को प्रोत्साहित करने के उपायों से किसानों को उत्पाद बढ़ाने तथा उपज का लंबे समय तक समुचित भंडारण करने की सुविधा मिलने से वर्ष के आखिर में अच्छी कमायी करने में मदद मिली। यह सब आईडब्ल्यूएमपी के तहत कम लागत वाली भंडारण सुविधा, अच्छे किस्म के बीजों की उपलब्धता और खेती की बेहतर तकनीक के इस्तेमाल से संभव हो पाया। आईडब्ल्यूएमपी-II के पहले चरण में नुआपाड़ा के कोमना ब्लॉक में 50 एकड़ भूमि में 70 किसानों को ए.एफ.एल.आर किस्म की प्याज की बुआयी में मदद दी गयी । प्रत्येक समूह से कुछ किसानों और प्रतिनिधियों को चुना गया और नासिक ले जाया गया जहां उन्हें परियोजना के तहत काम करने वाले सहकारी संगठनों और उनसे होने वाले लाभों को देखने का मौका मिला। कोमना के किसान नासिक के इन संगठनों और उनके काम-काज के तरीकों को देखकर काफी उत्साहित हुए। उन्होंने नासिक के किसानों से खेती, भंडारण और विपणन के बेहतर तरीके सीखे । इन सब में सबसे महत्वपूर्ण रहा नासिक के किसानों के साथ प्याज के बीज की आपूर्ति के लिए संपर्क।

ओडिशा में प्याज की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए शुरू की गयी पहल से इसके तहत आने वाला भूक्षेत्र वर्ष 2009 के 92 एकड़ से बढ़कर वर्ष 2012 तक 298 एकड़ हो गया।

महाराष्ट्र का उदाहरण

नासिक के किसानों से सीखे गए तरीकों और मिले प्रशिक्षण तथा गुणवत्ता युक्त बीजों के कारण किसानों को अपनी उपज 50 क्विंटल प्रति एकड़ से बढ़कर करीब 70 क्विंटल प्रति एकड़ करने में मदद मिली। किसान समूहों के विकास का लक्ष्य 272 प्याज उत्पादक किसानों के पंजीकरण के साथ हासिल कर लिया गया। कोमा ब्लॉक में शुरू की गयी आईडब्ल्यएमपी-II 2009-10 परियोजना का अब नुआपाडा और खरियार ब्लॉकों तक विस्तार हो चुका है। कम लागत में भंडारण सुविधा उपलब्ध हो जाने से किसानों को अपनी फसल से ज्यादा कमायी हो रही है। किसानों को 10 फुट लंबाई और 10 फुट चौड़ाई तथा 13 फुट लंबाई वाले भंडारगृह उपलब्ध कराए गए हैं, जहां प्याज रखने के लिए 3 रैक बनाए गए हैं। ऐसे हर भंडारगृह का निर्माण 16 हजार रुपए की लागत से किया गया है। लाभार्थियों को सुझाव और तकनीकी सलाह के लिए बागवानी विभाग के साथ जोड़ा गया है। प्याज के लिए बनाए गए भंडारगृहों को बांस से बनाया गया है और इसके फर्श भूसे से ढके गए हैं। हर भंडारगृह में 20 क्विंटल प्याज रखने की क्षमता है। पहले एक किसान 20 क्विंटल प्याज 04 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेच कर करीब 8 हजार रुपए ही कमा पाता था, लेकिन बेहतर भंडारण सुविधा मिलने से वह अब प्याज की उपज को 04 महीनों तक सुरक्षित रखकर 13 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बेचकर 19200 रुपए तक कमा लेता है, जबकि इसमें फसल कटाई और छंटायी के दौरान होने वाला 20 प्रतिशत नुकसान भी शामिल होता है। लागत के लिहाज से प्रति प्याज भंडारण क्षमता और मुनाफे औसत अनुपात 1:2:4 है और भंडारण ढांचों की आयु 8 वर्ष अनुमानित है।

उपलब्धियां और जागरुकता

परियोजना के तहत की गयी मध्यस्थता से किसानों को अपनी आय को कई गुना बढ़ाने में मदद मिली। मुनाफा बढ़ने के साथ ही बुआई क्षेत्र में तीन गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हुई। प्याज उत्पादन से होने वाली आय कई किसानों के कुल परिवार द्वारा अर्जित आय का करीब 50 प्रतिशत हो चुकी है। सफल रहे किसानों ने अपने गांव में दूसरे लोगों को भी प्याज की ए.एफ.एल.आर. किस्म की बड़े पैमाने पर खेती करने और उपज को ऊंची कीमत के समय बेचने के लिए भंडारगृहों के इस्तेमाल के लिए भी प्रोत्साहित किया है। सहकारिता ने व्यक्तिगत स्तर पर किसानों में आत्मविश्वास बढ़ाया है जिससे वह बाजार में अपनी मजबूत स्थिति के प्रति ज्यादा जागरूक हो चुके हैं।

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स्त्रोत:

  • पत्र सूचना कार्यालय फीचर सर्विस,ग्रामीण विकास मंत्रालय के भू-संसाधन विभाग से जानकारी ली गई है।

अंतिम सुधारित : 2/21/2020



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