झारखण्ड की सामाजिक एवं धार्मिक प्रथाएँ अन्य राज्यों की सामाजिक एवं धार्मिक प्रथाओं की तुलना में सीधा एवं सरल कहा जाता है| इस भाग में सामाजिक एवं धार्मिक प्रथाओं के विशेष बातों का जिक्र किया गया है जैसे बच्चों के नामकरण एवं शादी –विवाह की विधि कैसे होती है? किन – किन चीजों का इस्तेमाल किया जाता है? इन सब की जानकारी दी गई है |
प्रत्येक शिशु को किसी पूर्वज की देख-रेख और संरक्षण में एक नाम दिया जाता है| नामकरण समारोह के इस दिन एक बुजुर्ग धन की पत्तियों से निर्मित पत्तल और कांसे के एक कटोरे में पानी लेकर अपना आसन ग्रहण करता है| वह एक-एक करके चार दानों के छिलके अपने नाखून से उतारता है| वह कटोरे में पानी के शांत सतह पर चावल का पहला दाना धीरे से डालता है| यह परमसत्ता का बोध कराता इसी प्रकार वह ‘पंचों’ (बुजुर्गों) के नाम पर चावल का दूसरा दाना, चावल का तीसरा दाना शिशु के नाम से डालता है| यदि चावल के अंतिम दो दाने तैरते हुए जुड़ जाएँ तो शिशु का नाम उस पूर्वज के नाम पर रखा जाता है जिसके नाम से चौथा दाना डाला गया है| यदि ये दो डेन जुड़ने में असफल हों तो किसी अन्य पूर्वज के नाम से यह प्रक्रिया दोहराई जाती है जब तक कि अंतिम दो दाने मिल जाएँ| किसी पूर्वज के नाम पर जब शिशु का नामकरण एक बार हो जाता है, तब वह इस पृथ्वी पर जीवन की समस्त परिस्थितियों में परवर्ती (पूर्वज) की देख भाल और संरक्षण में रहता है और यहाँ के जीवन के बाद अंतत: एक-दुसरे के साथ मिलन हो जाता है| प्रथम चावल प्रतीक है कि अंतत: शिशु परमसत्ता की सम्पति है, जबकि दूसरा चावल प्रगट करता है कि पूर्वजगण इस रहस्य के साक्षी हैं| शिशु तथा दाने दोनों ही जीवन और समृद्धि के प्रतीक है, अतएव आदिवासियों के लिए ये अत्यंत उत्कृष्ट सम्पति हैं (तिर्की 1983 : 46)| उपरोक्त समारोह दर्शाता है की परमसत्ता, पूर्वजों एवं जीवित समुदाय के बीच मेल और एकता है|
केंद्रीय विवाह समारोह में वधु एवं वर एक दुसरे के माथे में ‘सिंदरी’ (सिन्दूर) लगाने के द्वारा अपने आपसी सहमति अभिव्यक्त करते हैं कुडूख विवाह में, वधु के परिवार के आंगन में एक जाता (चक्की) रख दिया जाता है| पत्थर पर पुआल के तीन या पांच गट्ठर रखे जाते हैं और उनके ऊपर एक जुआ टिका दिया जाता है| सामने में वधु को जाता के पत्थर के ऊपर खड़ा कर दिया जाता है जबकि पीछे खड़ा वर उसकी एड़ी पर अपने पैरों के अंगूठे और दूसरी अंगुली से चिपटकर दबाव डालता है| एक लम्बे कपड़े के द्वरा उन्हें आम जनता से पर्दा कर दिया जाता है| उनके मात्र सिर और पैर देखे जा सकते हैं| वर के सम्मुख एक सिन्दूर-पात्र रखा जाता है जिसमें वह अपनी अनामिका (रिंग फिंगर) डूबाकर वधु की मांग में तीन बार सिन्दूर लगाता है| इसी प्रकार वधु अपने बारी में वर के माथे में सिन्दूर लगाती है| इस अनूष्ठान के साथ दम्पति एक-दुसरे से विवाहित हो जाते हैं| इस अनुष्ठान की महत्ता ने केवल क्रियाओं के सरल प्रतीक में निहित है अपितु प्रतीकों की मौलिक गुणवत्ता में भी, जिसके माध्यम से क्रियाएँ कार्य करती हैं|
सिन्दूर लहू का विकल्प है और लहू गहरे मेल एवं प्रेम में एक साथ साझेदारी किया जाने वाला जीवन का आधारभूत प्रतीक है| आदिवासियों के बीच इसका अन्य कोई प्रतीकात्मक मूल्य नहीं है| संथाल और मुंडा पारंपरिक विवाह की रस्म में वधु तथा वर की छोटी (कानी) अंगुली से लहू की थोड़ी सी मात्रा निकली जाती है जिसे मिलाकर एक – दुसरे के माथे पर लगाया जाता है| ऊपर वर्णित चक्की (जाता) दर्शाती है की वधु परिवार के लिए भोजन बनाने के अपने मुख्य घरेलू कर्त्तव्य के रूप में इस पर प्रतिदिन कार्य करने जा रही है| इसी प्रकार जुआ दर्शाती है कि वर को अपनी पत्नी और बच्चों के भरण- पोषण केलिए एक गृहस्थ के रूप में खेत में हल चलाना और फसल उगाना है| पुआल एक घर की छत को दर्शाता है जो एक परिवार को धुप, वर्षा, सर्दी इत्यादि से आश्रय प्रदान करती है पर्दा के रूप में इस्तेमाल किया जाने वाला लंबा कपड़ा भी एक अच्छे अश्राययुक्त घर की चार दीवारों को दर्शाता है| इस प्रकार उपरोक्त सभी प्रतीकों को एक साथ लेने पर वे ‘आर्थिक प्रतीकों’ के रूप में खड़े होते हैं, इस बात पर बल देते हुए किविवाह का अर्थ एक घर स्थापित करना है यह प्रक्रिया, जैसे कि वे थे, किसी का ध्यान उन सबकी ओर आकृष्ट करना है जो जीवन में अत्यंत बुनियादी हैं| इसी कारण कूडूख लोग ‘एड्पा बेंजा, कुबी बेंजा’ इत्यादि बोलते हैं ( एक घर की आशीष के लिए, एक कूआँ इत्यादि) ‘बेंजा’ शब्द का अर्थ विवाह होता है|
यह एक साधारण मिट्टी का घड़ा होता है जो ऊपरी सिरे पर इसके गले के आसपास धान की बालियों की चुन्नट से निर्मित मुकूट द्वारा श्रृंगारित होता है| घड़ा में अरवा चावल, हल्दी, दूब घास और सरसों के बीज होते हैं (राय 1972 (1928) – 112) | दो बत्तियों वाला एक छोटा मिट्टी का दिया आड़ा रखा जाता है ताकि उनके सिरे बाहर की ओर निकले हों| मिट्टी के दिये के खाली स्थान में रखे उरद की डाल तथा तेल में डूबे बत्तियों द्वारा ईंधन प्राप्त करने वाले प्रत्येक बत्ती के दोनों सिरे जलाए जाते हैं| यह “कंड़सा भंडा” (विवाह कलश) विशेष तौर पर महिलाएँ इसे अपने सिरों पर रख भब्य अवसर को चिन्हित करने ले लिए नाचती हैं| अन्य मिलते- जुलते अवसरों पर भी नृत्य में इसका प्रयोग होता है|
विवाह में “कंड़सा भंडा” (विवाह कलश) वधु और वर दोनों कूलों के पूर्वजों का प्रतीक है (भगत : 10) इस प्रतिक के द्वारा उन्हें विवाह में भाग लेने के लिए आमंत्रित दिया जाता है| धान के चुन्नट वाले डंठल का अर्थ मिलन की निकटता है जो भविष्य में प्रचुरता लाएगी, जिसे धान की सिन्दूर बालियों में देखा जा सकता है| “कंड़सा भंडा” (विवाह कलश) में वह सबकुछ समाहित है जो जीवन और दम्पति को खुशहाल बनाने के लिए आवश्यक है तथा महिलाओं द्वारा इसे अपने सिरों पर रखकर नाचना समृद्धि, खुशहाली एवं मिलन, सामाजिक एकता और आदिवासी- भाईचारा का प्रतिक है|
वे नौ छोटे शाल (सराई, सखूआ) के पौधे हैं जिनके ऊपरी सिरे के ताजा एवं हरे पत्तों के गुच्छा को छोड़कर, छाल उखाड़ दिए जाते हैं| इनको विवाह वाले आंगन में गाड़ किया जाता है| सबसे ऊंचा वाला बीच में गाड़ा जाता है जो परमसत्ता का प्रतिनिधित्व करता है| बीच वाले के पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण वाले पौधे, गांव के पंचों (बुजुर्गों) का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा बचे हुए चार, विवाह आंगन के चार कोनों पर एक नये परिवार के घर के चार दीवारों का प्रतिनिधित्व करते हाँ ( तिर्की : 92) | इस ‘मड़वा’ के सहारे एक विवाह – कुज का निर्माण किया जाता है| कट जाने पर भी ‘शाल’ कभी मरता नहीं और हमेशा नए कोपलों के साथ नया बढ़ जाता है क्योंकि इसकी जड़ जीवित ही रहती है| इस कारण जो विवाह कर रहे हैं उनके बच्चों के लिए भी यह प्रतीक ठहरता है| वे गूणात्मक रूप में बढ़ेगें और कभी नहीं मरेंगे और इस प्रकार उनका गोत्र वंश इस संसार में सदा जारी रह सकता है (भगत : 15) |
वधु एवं वर को किसी नैतिक अशुद्धियों से शुद्ध करने के लिए हल्दी का गाढ़ा घोल (पेस्ट) मला जाता है( तिर्की : 49)| यह विशेषकर वधु के शरीर को स्वस्थ एवं मजबूत बनाने के लिए भी किया जाता है क्योंकी स्वस्थ बच्चे वहन करने के लिए इसे चुस्त और मजबूत होना आवश्यक है उन्हें तेल भी लगाया जाता है| इस प्रकार इनका लगाया जाना उन्हें ह्रष्ट- पुष्ट बनाने दे लिए होता है| धार्मिक स्तर, कुडूख परम्परा के अनुसार एक ‘बारंडा’ नाम की आत्मा है जिसे न अच्छा और न बुरा कहा जा सकता है| वह वर का रूप धारण कर वधु से विवाह कर ले सकता है और इस प्रकार उलझन पैदा कर सकता है| जो भी हो, वह हल्दी से बचता है (भगत) | यह एक कारण है की हल्दी का लेप विवाह में क्यों प्रयुक्त होता है|
वर के घर में प्रत्येक वधु अपने साथ एक तीर लाती है| वधु चाहती है की उसका पति इस अस्त्र के द्वारा सभी शत्रूओं में उसकी रक्षा करे| इसका अर्थ यह की उसका पति उसके और परिवार के लिए विभिन्न शिकार अभियान के दौरान शिकार ले आ सके (कैम्पियन 1980:53) स्तर पर यह दुष्ट आत्मा आथवा दुष्ट शक्ति के अनिष्ट से उसे बचाता है ( भगत: 15, कुजूर 1989:234)|
भाषा प्रत्येक प्रणाली का एक अंग है| किसी भी समाज की पौराणिक भाषा अत्यंत प्रतीकत्मक होती है| इस संदर्भ में कुडूख लोगों के विश्वास है की ‘धर्मेश’ (परमसत्ता) ने ‘भैया-बहिन’ (प्रथम पूर्वज माता- पिता) को कुडूख भाषा के माध्यम से स्वयं सम्प्रेषित किया| उसने उन्हें ‘पालकन्सना’ नामक धार्मिक विधि सिखाई जिसे ‘डंडाकूटना’ ‘भाई भाख खंडना’ भेलवाफाड़ी’ भी कहते हैं| विभिन्न अवसरों पर धर्मेस अनुष्ठान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और जो भाषा प्रयोग की जानी है वह मात्र कुडूख ही, क्योंकि धर्मस ने प्रथम कुडूख पूर्वजों से इसी भाषा में बात की (भगत 1988: 43)| इस प्रकार इसका आधार ईश्वरीय है अतएव यह पवित्र है|
स्रोत: झारखण्ड समाज संस्कृति और विकास/ जेवियर समाज सेवा संस्थान, राँची
अंतिम सुधारित : 2/22/2020
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