सूर्य परमसत्ता का प्रतीक है (रॉय : 1, तोपनो 1978 : 8) वह शुद्ध, प्रकाशमान और पूर्ण शक्तिशाली है| इसी प्रतीकात्मक भाव में उसे (क) सिंगबोंगा (सूर्य आत्मा) मुंडाओं द्वारा, (ख) बीरी बेलस (सूर्य राजा) कुडूख लोगों द्वारा और (ग) बेरो-लेरंग (सूर्य चंद्रमा) खड़िया लोगों द्वारा कहा जाता है| यह भी कारण है कि गाँव का पाहन (पुरोहित) परमसत्ता को बलि अर्पित करते समय पूरब की ओर मुंह करता है क्योंकी सूर्य पूरब सर उदित होता है| ‘सरना’ में यह स्पष्ट रूप से ध्यान देने योग्य है जहाँ वह आत्माओं को बलि अर्पित करने के स्थान से हट कर एक अलग स्थान पर चला जाता है और परमसत्ता से जब प्रार्थना करता है तब पूर्व की ओर मुंह कर लेता है| कुडूख ग्रामीण पाहन (पुरोहित) परमसत्ता से निम्न प्रकार प्रार्थना करता है :-
धर्मेस ऊपर है
हे पिता, आप ऊपर में, हम नीचे हैं
आपको आंखे हैं, हम नहीं देख पाते
आप सबकुछ जानते हैं, हम सम्पूर्ण रूप से अज्ञानी हैं
जान बूझकर अथवा भूलवश हमने आत्माओं को नाराज
किया है, उन्हें नियंतित्र करें हमारे भूलों को अनदेखा
कर दें
(एक्का 1967:2)
आदिवासियों की सर्वोत्तम धार्मिक परम्परा में किसी भी प्रकार की मूर्तिपूजा का कोई स्थान नहीं है| उनके पास कोई मूर्ति, कोई मंदिर नहीं है| वे नि: संदेह कुछ वस्तुओं का उपयोग कतिपय आत्मिक सत्ताओं के प्रतीक के रूप में करते हैं|
संथाल लोग चद्रंमा को उनके परमसत्ता के रूप में देखते हैं उसे ‘चांदो – बाबा’ (चंद्रमा पिता) पुकारते हैं| आदिवासी लोग अपने सामाजिक – आर्थिक जीवन में चंद्र- मास का अनुसरण करते हैं| इस प्रकार से अभिव्यक्त होता है| विवाह के मामले में वे इस बात पर विशेष ध्यान देते हैं कि यह उन दिनों में ही संपन्न हो जब चाँद बढ़ रहा होता है| इसकी एक व्याख्या यह है कि यह जीवन की पूर्णता की ओर बढ़ने को दर्शाता है| इसी समझ के साथ विवाह उन् दिनों में संपन्न नहीं हो सकता जब चाँद घाट रहा होता है क्योंकि इसका अर्थ यह होगा की जीवन छोटा होने जा रहा है| यह पूर्णिमा के दिन संपन्न नहीं होगा क्योंकि इसका अर्थ होगा की जीवन ने अपनी सम्पूर्णता पहले ही हासिल कर ली थी और फिर वर्त्तमान तथा भविष्य में आगे बढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं थी|
भईया – बहिन (पूर्व माता- पिता) ने जब अपने खेतों के तटबंध (आल) बना लिए उन्होंने परमसत्ता से उन्हें कृषि- कला सिखाने का निवेदन किया | वह (परमसत्ता) हाल और जूआ बनाते हुए सात दिन और रात उनके पास रह गया| अपने कार्य के दौरान उसने (परमसत्ता ने) एक पेड़ पर एक पंडुक को घोंसले में अंडा सेते हुए देखा| उसने (परमसत्ता) अपना मूगरा (हथोड़ा) पंडुक पर फेंका परंतु चूक गया| पंडुका घोंसले से उड़कर चला जाता है | ‘पंडुकी बी’ (पंडुक के अंडे) भी तारा युग्म में परिवर्तित हो गए (अल्देबरान) | इसी प्रकार से ‘मूगरा’ (हथौड़ा) ‘प्लीआदेस’ में बदल गया (कुजूर : 224)|
‘हर जूआरी’ (हल और जुआ) ओरिआन की कमर पट्टी के तीन तारे हैं| तीनों चमकते हुए तारे एक कतार में दिखाई देते हैं, अन्य दो तारे कतार की एक छोर पर टांगे पसारे हुए आभास दिलाते हैं कि हल और जूआ अथवा उन्हें घर ले आए| परमसत्ता ने हरजुआरी’ (ओरिआन) और “मूगरा” (प्लासिदियूस) को आकाश में मनुष्यों के प्रति अपने असीम पितातूल्य भलाई एवं पूर्व प्रबंध के आदर्शों तथा स्मृति चिन्ह के रूप में स्थापित कर दिया (कैम्पियन : 98)|
चार तारे जो एक बड़े वर्ग का आकार लेते हैं ‘खट्टी पावा’ (एक खाट के चार पांव) के समान दिखाई देते हैं | कुडूख परंपरा के अनुसार इस खाट का उपयोग धर्मेस द्वारा खेतों में कठिन परिश्रम के समय किया जाता था ( कुजूर : 225)|
सप्तर्षि के मध्य धीमी रौशनी वाले दो तारे हैं जो ‘बुरसी –बिनको’ कहलाते हैं| ‘बुरसी’ का अर्थ आग का पात्र (हंडिया) जिसे साधारणतया सर्दियों कमरा और बिस्तर गर्म करने के लिए उपयोग माँ लाया जाता है|
यह अकेला चमकता तारा है जिसे ‘माक बिनको’ (मृगतारा) कहते हैं | इसे सूर्यास्त के तुरंत बाद देखा जा सकता है | कुडूख लोगों का कहना है कि यह तारा शाम में मृगों को चरने के लिए प्रकाश देता हैं| जैसे ही यह तारा अदृश्य होता है, मृग अपने अपने गुफाओं अथवा शरण – स्थल में लौट जाते हैं| बहुत संभव है कि इस चमकवान तारे का नाम इस कारण ऐसा रखा गया क्योंकी यह उन्हें मृग का शिकार करने में सहायता करता था|
कुडूख लोगों द्वारा इसे “भुरका बीनको” कहा जाता है, जिसकी प्रतीक्षा प्रात:काल दिन आरंभ होने की घोषणा के लिए व्यग्रता से की जाती है| इसके उगने के बाद लोग अपने दैनिक क्रियाकलापों में बहुत पहले ही तैयार हो जाते हैं|
ऊपर में वर्णित समस्त तारे आदिवासियों के लिए हमेशा से बहुत प्रेरणा एवं बल के स्रोत रहे हैं, आग के चारों ओर अपने धान एवं अन्य फसलों की रखवाली करते सर्दियों की लंबी रातों में, खलिहानों में बैठे इत्यादि और पृथ्वी तथा आकाश में परमसत्ता के आश्चर्यजनक कार्यों पर चिंतन- मनन तथा विचार-विमर्श करते|
दिलचस्प रूप में, ‘टाना भगत’ लोग खगोलीय पिंडों को अच्छा सामर्थ्ययुक्त मानते हैं और अपने भक्तिमान तथा प्रार्थना में प्राय: उनका आह्वान करते हैं (रॉय :251)
स्रोत: झारखण्ड समाज संस्कृति और विकास/ जेवियर समाज सेवा संस्थान, राँची
अंतिम सुधारित : 2/21/2020
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