मुंडा, पहान, महतो, बैगा, खूंट, पड़हा, पट्टी, भूइंहार आदि रोचक विषयों को छोड़कर “किली” या “खिली” (खड़िया) का पहले वर्णन करना चाहिए, क्योंकी यह वंश की मूल बात हिया और इसका घराने से सघन संबंध है| पाठक जानते होंगे की घराना ही किसी कौम या जाति की सुदृढ़ नींव है| घराना, बरबार, जाति नदारद| इसी की सच्चाई जानकर आजकल कई देशों में, अराजकता फैलानेवाले नीच लोग, घरानों पर ही पहले आक्रमण करते हैं| जो हो, गोत्र की संस्था, संसार की कई आदिम जातियों में पाई जाती है| सच पुछा जाए तो, एशिया और यूरोप की आधुनिक जातियों में भी इसका कुछ चिन्ह मिलता है| हिन्दू जाती और वर्ण – प्रथा में तो इसका खासा प्रतिरूप ही देखने को मिलता है| ऐसा जँचता है मानो गोत्र- प्रथा जातीय – विकास में स्वभाविक है, अनिवार्य ही क्यों न हो|
मुंडारी “ किली” शब्द संस्कृत “कुल” के साथ मिलता है| फिर एक गैलिक शब्द भी उसी का सूचक है| यदि आप चाहें तो इसमें लैटिन का भी आभास पाइएग| पर परिभाषा- स्वरूप हम कह सकते है कि “किली” (गोत्र), कूल या वंश की संज्ञा है जो उसके मूल पुरूष के अनुसार होती है| मुंडा-परंपरा से चलती आई है कि किली के सब अंग या व्यक्ति एक ही पुरखे की संतति है| यह वंश – धारा भी पितृपक्ष है न कि मातृपक्ष; अथार्त संतान में पिता ही की किली चलती है, माता की नहीं| तो किली की स्थापना क्योंकर हुई? विशेष कारण ये हैं –
(क) मुंडा जाति की बेटे – बेटियाँ अपनी किली में हरगिज शादी न करें (“ एक ही किलीवाले, भाई-बहन हैं”) पर अन्य मुंडा किलियों में | गोत्र्मन की बुराई को वे प्रकृति का उल्लंघन मानते हैं| निकट कूटोम्बियों में शादी- विवाह भी घृणा की दृष्टी से देखते हैं|
(ख) गाँव में बदचलन की एक न चले
(ग) “ मुंडा जाति के विभिन्न बिरादरियों का संयोग हो”|
बाहर विवाह के निमित्त, मुंडा जाती कई छोटे वर्गों में विभक्त हैं जिन्हें किली कहते हैं| मुंडा किली बाहर शादी करते हैं पर असली मुंडा ही जाति के अंतर्गत| ‘यों संताल, खड़िया, असुर आदि में वे विवाह- गांठ नहीं जोड़ते| इस नियम का केवल एक अपवाद है : तमाड़ के मुंडा लोग मानभूम के भूमिजों से शादी करते हैं जो शायद सजातीय हैं| किली की उत्पति किसी प्राकृतिक पदार्थ से है, जैसे कोई जानवर, पक्षी, जलचर (जैसे मछली), थलचर (जैसे मूसा) और पौधे से| लोग कहते हैं कि भूतकाल में किसी पूर्वज या पूर्वजों का इन पदार्थों से काम पड़ा था, तो इस घटना के बाद उस पूर्वज ने उनका नागा अपने घराने से जोड़ लिया और यों किली का आरम्भ हुआ| उस वंश के जन भी गोत्रीय पदार्थ को आदर की दृष्टि से देखने लगी| (अब हम ज्ञानियों के बखेड़े में अनायास आ ही गए) – श्रद्धेय और सोविद्वान फादर होफमन ये.स. और राय बहादूर शरतचंद्र राय का बखेड़ा| राय बहादूर कहते हैं कि झारखण्ड में टोटेमिज्म जारी है, याने टोटेम का रथ घराने का प्राकृतिक निशान, जिसको अपने किली- लोग पूजनीय या ईष्ट देव समझकर उसको पवित्र और वर्जित मानते; उसको अपना जीवनदाता समझकर आत्मीय से समझते हैं, उसकी पूजा करते और स्वप्न में भी उसकी हानि नहीं करते हैं| फादर जी फर्माते है कि छोटानागपुर निवासी अपने किली-निशान की न पूजा करतें न जीवनदाता ही समझते हैं, और आदर देना तो दूर रहा, कोई-कोई किलियों की परवाह न कर उसको खाते भी हैं| वर्तमान लेखक फादर का पक्ष इसलिए लेते हैं कि इन्होंनें कई प्रमाण दिए हैं जिनके लिए यहाँ स्थान नहीं|
मुंडाओं के झारखंड आने के ज़माने, थोड़े ही गोत्र थे, पर उनकी बढ़ती संख्या ने और नयी किलियाँ चुनी और गोत्र विहीनों को किलियाँ दीं| कोई-कोई किलियाँ तो संतालों की सी हैं; ये उसी कल की हैं| ग्रहण करने की भी कई किस्सायें हैं| उदाहरणार्थ: एक समय, एक विशाल कछूए ने अपने मुंडा शरणागातों को एक उमड़ती नदी के पार लगा दिया; अब आया “होरो” अथवा “कछूवा” गोत्र| नाग – किलीवाले कहते हैं : एक मुंडा संपेरा, दूर अपना गाँव वापस आ रहा था| अभाग्यवश, राह में उसकी मृत्यु हो जाने पर सांपराम अपनी काया शव पर लपेटकर उसे घर लाया; बस चली घराने में “नाग किली”| ऐसी ही कई कहानियां हैं|
मुंडा लोग किसी वंश- विशेष में रहने का खास प्रमाण देते है| अपनी पितृ- कूल किली| घराने के पूजा पाठ में भी सब किली- मेम्बरों को भी हाजिर होने का दावा है| दुसरे- दुसरे किली मेम्बरों की प्रसादी भोजन (पूजा- भोजन)खाने का कोई हक़ नहीं | मरने पर गोत्रज ही एक कब्रस्थान में गाड़े जा सकते हैं| उनका अपना “ससन” और “ससन दिरी” (कब्र पत्थर) है यदि कोई किलिजन गाँव से दूर मर जाए तो वार्षिक त्योहार के समय “जंगतोपा” (हड्डियों को दफन) के अवसर पर उसकी हड्डियों लाकर ससन के नीचे रखी जाती हैं| मुंडा लोगों की एक कहावत है : “ससनदीरीको, होड़ो होन कोआ: पटा” (कब्र – शिला ही मुंडाओं का पट्टा है)|
मुंडारी किलियों का अर्थ बताना कठिन काम है, इसलिए की इसमें एकमत नहीं हैं| यहाँ माननीय फा. होफमन की सूची दी जाती है, जिन्होंने 30 वर्षों से अधिक मुंडा लोगों के संग रहकर उनका अध्ययन किया है|
(क) ये किलियाँ सिलसिलेवार मालूम पड़ती हैं पर किसी- किसी का अर्थ अज्ञात है :बरजो (बरूजो) – एक फल विशेष; बोदरा- चम्पिया? ; गुडिया- गाछ- मूंडू – लम्बी लाठी घुसेड़ना; मुरूम- ?; नील- बैल; ओड़ेया – एक पक्षी; पूर्ती - ? संगा – शक्करकंद; टीड़- एक जवान भैंस; सोएस – सड़यल मछली; टूटी – एक प्रकार का अन्न|
(ख) भिन्न- भिन्न किलियाँ| इनके अर्थ होते हैं :बाबा- धान; बाअ – एक मछली; बाल मूचू- मछली जाल बरू- एक गाछ; मूस= मूसा; बूलूंग – निमक; चोरिया – एक प्रकार का चूहा; डांग (डहँगा)- डांग; डूंगडूंग (आईंद) – एक बहूत लंबी मछली; गाड़ी बंदर; हो (तोपनो, देम्ता) – गाछ की लाल चींटी; हँस –हँस हेमरोम – एक पेड़; होरो (कछुआ) – कछुआ; जोजो – इमली; कोवा – कौआ; केरकेट्टा- एक चिड़िया; कूदा – एक पेड़; कूजूरी – एक लता; कूला (बाघ)- बाघ; कूंकल – बर्रा; लंग- एक पक्षी; मौंकल – एक पक्षी; पांडु (नाग)- नाग सांप; पूतम – पंडकी; रूंडा (बंडो) – जंगली बिल्ली; सलू मैना – जंगली मैना; सींघ – सींग. तनी (बरवा) – जंगली कुत्ता; ताडैबा – एक फूल; तिलमिंग – तिल; टेड़ो : (लकड़ा) – हूँडार, लक्कड़बग्घा; टिडू- एक पक्षी|
(ग) इनका अर्थ निश्चित नहीं है – बरला- बरगद? भेंगरा- घोडा खाने वाला, घोडा; डोडराय- खो?; कांडीर - ? कंडूला – पेट दर्द?; कोंगाड़ी – सफेद कौवा ?; सूरिन (सोरेन – संताली)- एक लाल पक्षी ?;
(घ) इनका मने ही नहीं मिलता – बदिंग; बागे (बाघ?) दंगवार –(कुमारी?); लूगून; मुंदरी; समाद; तिरकी . इत्यादि|
फादर होफमन ने 106 किलियाँ खोजी हैं| पर यहाँ 59 ही नामों का उल्लेख हूआ| कई किलियाँ कई वर्गों में विभक्त है, अर्थ भी कुछ – कुछ भिन्न हैं –
पहले लेख में “टोटेम” और “टबू” मानव- शास्त्र या जाति- विद्या के दो शब्दों को जरा खोलकर व्यवहार किया गया है| कहा जाता है कि मुंडा लोग टोटेम की पूजा नहीं करते, न टबू को निहायत वर्जित मानते, फिर भी प्राय: सब के सब उसका आदर करते हैं| पाठक इसको याद करें|
गोत्रों के संबंध में, जैसे मुंडाओं का जातीय- विकास और ख्याल है, वैसे ही उराँव और खड़िया लोगों की भी धारणाएँ चलती हैं| तिस पर भी ज्ञानियों का मत है कि इन आदिवासियों में गोत्र- प्रथा की धारा स्वतंत्र रूप से बहती आई है| पर इसका प्रमाण हमें नहीं मिलता| सैकड़ों वर्षो से सहवास से इन जातियों का कुछ गोत्रों की उत्पति अपनी जाति के अंतर हुई है| जब शब्द कोश आदि मिलते- जुलते हैं, तो गोत्रों का परस्पर आधार या लेन-देन क्यों न हो: कई गोत्र तो एक ही के रूपान्तर हैं|
उरांवो की गोत्र- प्रथा पड़हा – राज्य के पहले जोरों से थी| यह उसी समय के व्यवस्था है जब उराँव लोग आखेट, संग्राम, खले- तमाशे, नाच-गान- त्योहारों आदि का शौक रखते थे| मुंडा पुरूष के अनुसार हुई थी| इनके अविष्कार और स्थापना का उद्देश्य शादी-ब्याह के सामाजिक गड़बड़ी से जात को वंचित और शुद्ध रखना था| लोग गोत्र- बाहर, पर जात – भीतर विवाह करते थे| गोत्र प्रथा उन्नत अवस्था में होकर, आखेट – युग के समाज की नींव बनी थी| पर उत्तरकाल में, समय के फेर से, उस पर कुछ धक्का – सा लग गया जिसका उद्धार अब तक नहीं हूआ है| इसके विशेष कारण, गृहस्थी का सुप्रबंध, पड़हा – राज्य और आधुनिक समाज- व्यवस्था हैं, जिन्होंने उराँव समाज की बनावट को एक नया रूप दे दिया है| पड़हा – प्रथा का वर्णन अगले लेखों में होगा| आज के गोत्र, टोटेम और टबू के नियम उराँव शादी-सगाई पर गहरी छाप; लगाए हुए हैं|
उराँव अपने कूल टोटेम को सखा- साथी- सा मानता है और उसके साथ मिताई का व्यवहार करता है| व्यक्तिगत गोत्र नहीं होते; हैं बिरादरियों के| अपने इस कूल संज्ञा को लोग जीवनदाता तो नहीं मानते पर उसकी विशेष याद तथा आदर करते हैं|
मुंडा गोत्रों जैसी उराँव कुल- संज्ञा की भी कई कथाएँ चलती हैं जिनमें कभी लोग अपने टोटेम की मदद मांगते या कभी टोटेम ही की मदद पहुंचाते हैं| कहते हैं कि किसी कुजूर पौधे नई एक समय, एक सूशूप्त उराँव को अपने लता – आभरण से घेर कर मुसीबत से बचाया था| इसी से उस जन के वंशज कुजूर कहलाने लगे| कोई कहानी तो इसकी उल्टी चलती हिया “ कोई उराँव एक कछूए को पकड़ने पर था| तब कछूए ने विनती की, “भाई, मै तो तुम्हारी ही जात का हूँ” आदमी ने यह सुनकर उस जानवर को छोड़ दिया| इसी घटना की याद में उस मनुष्य के परिवार ने “कच्छप’ गोत्र ग्रहण किया| किसपोट्टा गोत्र की किस्सा तो ऐसी है| किसी उराँव ने एक सुअर का वधकर उसका गोश्त तो खाया पर अंतड़ियाँ फेंक दीं| परंतु सूअर – जीव जो था उन्हीं अंतड़ियों में भाग खड़ा हुआ| बाद में लोग क्या देखते हैं कि वहीं सूअर जीता- जागता चक्कर मार रहा है| इस पर सूअर – घातक की संतान ने किसपोट्टा गोत्र लिया|
अपने को एक मूल पुरखे संतान जानकर उराँव लोग, अपने ही गोत्र के भीतर बहु- बेटियां नहीं देते, न वर ही खोजते| यदि अनजान ही ऐसी शादी हो गई, तो भेद खुल जाने पर, हेय दम्पति जात से बहिष्कृत कर दिया जाता है और बिरादरी पड़हा- सदस्यों को जुर्माना और बढ़िया दावत (भोजन) देकर ही, जात में सम्मिलित होता है| टोटेम को बहुतेरे वर्जित मानते हैं, अथार्त यदि वह प्राणी हो तो उसे हानि न करते या कराते; अप्राणी हो तो उसका प्रयोग सिर्फ मजबूर होकर करते हैं, सो भी विचित्र रीति से जैसे “बेक” (निमक) का समझदार प्रयोग| कभी कारणवश अपने गोत्र को बदल लेते हैं, या नाममात्र या निशान से संतुष्ट रहते हैं, जैसे किसपोट्टा गोत्र के नामलेवों ने उसे “कसाई” (एक गाछ का नाम) में बदल किया है| ये लोग इस गाछ का भी आदर करते हैं| कभी- कभी “जातराओं” में कूल- निशानों के पुतले- पुतलियाँ बनाकर लोग लेते फिरते हैं| ये निशान कुछ धार्मिक, कुछ गोत्र एक में समझे जाते हैं|
अब गोत्रों की नामावली दी जाती है| पाठक याद करें कि कुछ- कुछ गोत्रों के अर्थ इनसे भिन्न भी हो सकते हैं|
(क) पशु- गोत्र- अड्डो- बैल| अल्ला- कुत्ता| बंडो – जंगली बिल्ली| बरवा- जंगली कुत्ता| चिडरा (चिड़रा) – गिलहरी| चिगालो (सिकटा) – गीदड़| एड्गो – चूहा| गाड़ी – मामूली बंदर| हलमान – हनुमान| खोया- जंगली कुत्ता| लकड़ा- बाघ | ओस्गा- खेत- मूसा| रूंडा- लोमड़ी| ति(तिग्गा) – एक प्रकार का बन्दर| तिर्की- छोटा चूहा|
(ख) पक्षी- गोत्र – बकुला- बगला| ढेचूआ- ढेचूवा| गड़वा- सारस| गेड़े – बतख| गिधि| खाखा- कौवा| केरकेट्टा- एक पक्षी विशेष| कोकरो- मुर्गा| ओरगोड़ा – बाज| तिरकुवार – तिथियों पक्षी| टोप्पो या लंग टोप्पो – पक्षी विशेष|
(ग) मछली अथवा जलचर- गोत्र- आईंद- एक लम्बी मछली, एक्का (कच्छप)- कछूवा | गोडो- मंगर| खलको- एक मछली- विशेष| किन्दूवर- एक मछली विशेष| लिंडा – एक लंबी मछली| मिंज- एक मछली विशेष| साल- एक मछली विशेष| तिड़ो- एक मछली विशेष|
(घ) रेंगने वालों में – खेत्ता- नाग सांप|
(ड.) वनस्पति – गोत्र – बखला – एक प्रकार की घास, बल्कल| बाड़ा(बरला)- बरगद| बासा – एक गाछ| कंदा- सक्करकंदा| कैथी- एक तरकारी पौधा| कैंडी – एक गाछ| खेस – धान| किन्दो- खजूर| कुजूर- एक फल;लता| कून्दरी – तरकारी पौधा| मूंजनी- एक लता| पूतरी – एक गाछ| केओंद – एक फल| पुसर- कूसूम|
(च) धातु- गोत्र- पन्ना- लोहा| बेक- निमक|
(छ) स्थान- गोत्र – बांध- बांध| जूब्बी- दलदल भूमि|
(ज) खंडित – गोत्र- अंमडी – चावल शोखा| किसपोट्टा- सूअर की अंतड़ी |
खड़िया- पहले लेखों में यह कहा गया है कि खड़िया लोग तीन वर्गों के होते हैं – दूध. ढेलकी खड़िया, पहाड़ी खड़िया| इनमें पहाड़ी खड़िया सब से निम्न श्रेणी के समझे जाते हैं और दूध सब से सभ्य| छोटानागपुर की अन्य जातियों के समान इनमें भी गोत्र- प्रथा जाती है| सिर्फ मयूरभंज के पहाड़ी खड़िया इस संस्था से वंचित हैं; हाँ मानभूम और सिंहभूमि के रहनेवाले गोत्र प्रथा को कुछ-कुछ मानते हैं|विचित्रता यह भी है कि मयूरगंज के सगोत्र, आपस में शादी-सगाई जोड़ते हैं| यों, मयूरभंजी, अपने “पदित” (उपनाम) और अपनी “संज्ञा” (उपाधि) के अंदर शादी तो कर सकता है; पर अपने घराने के परिवारों के साथ उसका विवाह वर्जित है|
दूसरे खड़िया लोग गोत्र की नीति-रीति रखते हैं| सगोत्र खड़ियाओं का ख्याल है कि हम सब एक ही पुरूष- पुरखे के वंशज हैं| कि हम भाई-बहन हो एक वृहत घराने अंग-अंग हैं| इस स्थिति में वैवाहिक नाता जोड़ा नहीं जा सकता; जो जोड़े वह गोत्रवध का दोषी ठहरता है| तो इस सजातीय संगठन का ध्येय यही है कि गोत्र – बाहर विवाह का सुरक्षण हो और सजातीय में सामाजिक सुप्रबंध हो|
ढेलकी खड़िया के गोत्र आठ हैं – 1. मुरू- कछुआ; 2. सोरेन (सोरेंग, सेरेंग) या तोरेंग- पत्थर या चट्टान; 3. समाद- एक हरिण? अथवा बागे- बटेर; 4. बरलिहा- एक फल; 5. चारहाद या चारहा – एक चिड़िया; 6. हंसदा या डूंगडूंग या आईंद – एक लंबी मछली; 7. मैल – मैल अथवा किरो- बाघ; 8. तोपनो- एक चिड़िया| किरो : और तोपनो दूसरों से हीन समझे जाते हैं| मुरू और समाद सब से श्रेष्ठ | इन गोत्रों ही के पुरूषों को पंचायतों और सभा- सोसाइटियों में सभापति बनाया जाता है – मुरू- गोत्रीय, “पनदिहा” (पानी देने वाला) और समाद – गोत्रीय “भंडारी” (खचानची) मन जाता है| मुरू खानदान का पुरूष ही खानपान में पहला कौर खा सकता है|
पौराणिक कथा तो ऐसी है| गंगपुर के ढेलकी खड़िया कहते हैं कि पुराने समय में जाती के “सियोन” (बड़े) श्राद्ध- भोजन के बाद नदी में नहाने ढोने के लिए उतरे| वर्तमान मैल – गोत्री का पुरखा, धारे के नीचे और मुरू- गोत्री का पुरूष सबसे ऊपर बैठा| नतीजा यह हुआ कि मैल- गोत्री को मैले पानी से नहाना पड़ा; इसलिए यही मैल गोत्री का मूल पुरूष कहा जाता है| दूसरे किस्से से यह पता चलता है कि मुरू वंश ही छोटानागपुर से निकलकर सब से पहले गंगपुर और जशपुर का प्रवेश किया और तोपनों वंश सब से पीछे| पीछे आने के कारण इस गोत्र को दूसरों के चूल्हों और जूठे बर्तनों का इस्तेमाल कनर पड़ा| यों सीए में हीनता रही|
दूध खड़िया तो नव गोत्र मानते हैं| वे हैं- 1. डूंगडूंग – एक लंबी मछली; 2. कुलु- कछूवा; 3. समाद अथवा केरकेट्टा- एक पक्षी; 4. बिलूंग- निमक; 5. सोरेंग- चट्टान; 6. बा- धान; 7. टेटेहोंए – एक पक्षी; 8. टोपो से निकले हैं| सामाजिक चौधराई तो प्रथम तीन गोत्रों ही से की जाती है, क्योंकि ये ही सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं| पर्व0 त्योहारों में ये “कर्ताहास” (मुख्य) ही खाने का श्रीगणेश करते हैं| डूंगडूंग वंश राजा होता है; कुलू रानी और समाद या केरकेट्टा “भंडारी”|
स्रोत : छोटानागपुर के आदिवासी/ जेवियर समाज सेवा संस्थान, राँची
अंतिम सुधारित : 2/22/2020
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