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आदिवासी गीत

मुंडारी नाच

गोधूली के समय से घंटे- दो-घंटे बीत गए हैं। अखाड़े के वृत्त पर बैठे बीसों दर्शकगण नृत्य- दल पर आंखे गड़ाए हुए है। पूर्णिमा के चन्द्रमा को कोई पूछता नहीं। एक ओर के छायेदार पेड़ों पर भी बिरले ही किसी की नजर जाती है। फिर भी शीतल चन्द्रिका किंचित भी तिरष्कृत न होकर अवनि, तरूओं, अखाड़े के सब जीवों पर अपना सुखद, कोमल छटाएँ प्रसारित का चाँदी का मुलम्मा दे रही है। युवक- युवतियों की दो – तीन कतारें जो हैं गलबहिंयाँ- बद्ध होकर पंखे- जैसे फैलतीं, मानो चूल पर चक्र पर लगाती। मृदंग का गर्जन और तन्मय चाल, हाथों संकेतमय चलन और नाच के “भले- भले” बोल से वातावरण गूँज राह है, सन्नाटा टूट रहा है और दूली बेहतर उड़ रही है। हाँ, अब नृत्य का समय है............ घंटो नाचो- दिन के धंधे से तो रात भर नाचो .......... पुरखों का नाच है, इसको जारी रखना संतानों का धर्म है। “यह है छोटानागपुर – नाच का संकेतमात्र वर्णन।

छोटानागपुर के जितने प्रकार के गीत होते हैं, उतने ही प्रकार के नाच भी होते हैं। चूंकि गाना बारहों मास जारी रहता, नर्तन भी इसका पिंड छुड़ाये नहीं छोड़ता। पर, हाँ अगहन के अन्नपूर्ण अवकाशों में और कुछ पश्चात, नाचगान का बखूबी रोब जगा रहता है और जेठ- असाढ़ के अन्न रहित और स्न्कोच्मय दिनों में भूखे पेट नाचना, दूभर सा लगता है; पर पहुंचे हुए रिझवारों को रोके कौन; उनकी डाल बराबर गलती है। गीत – वर्ग के राग बहूत सुन्दर दुहराए जा सकते हैं। मन का ऊबना तो दूर रहा, उल्टे, उत्तरोतर र्स, जोश और सरगर्मी सब बढ़ते जाते हैं: यहाँ तक कि नाचते- गाते कभी- कभी कोई भावुक जवान आणि सुध-बुध खोकर थर्राने लगता हैं ताल-बेताल डेगने लगता है- “ उसपर भूत सवार हो गया।” इस अवसर पर भूत का भगाना और जवान की सूच वापस लाना, केवल एक मजबूत ठोकर से किया जा सकता है, अक्सर कोई मोटा चाबुक भी प्रयोग किया जाता है।

परन्तु लाचार होकर कहना पड़ता है कि हमारे ल्ब्धप्रतिष्ठा प्राचीन आदिवासी रचयिता और संगीतज्ञ अतीत के विस्मृति कानन में खो गए। हमारा ख्याल है कि हमारे गायक- महारथी बड़ी तादाद में हुए होंगे- उनकी अवशिष्ट कृतियाँ यह साक्षी दे रही हैं। आशा है हमारी एक ऐतिहासिक खोज-म कमिटी इन विस्मृत महानुभावों का उद्धार कर झारखण्ड का मुख उज्जवल कर देगी। देशी संगीत- संघ के न होते हुए भी निम्नलिखित विदेशी महोदयों ने हमारी नितांत भलाई कर हमें चिर- ऋणी कर दिया। हमारे संगीत – संग्रह का प्रमुख श्रेय है श्रद्धेया केशरी फादर होफमन ये.स.को जिन्होनें संगीत- विशारद मान्यवर फादर हिप्प ये. स.ओर फादर आमन ये. स. की सहायता से मुंडारी संगीत को वर्गीकरण पर सूसंपादित कर दिया। उराँव और खड़िया और मुंडारी संग्रहकर्त्ताओं में रायबहादुर बाबू सरत चन्द्र राय और डब्ल्यू जी.आर्चर साहब के नामों का हमें विशेष गर्व है।

खड़िया और  उराँव भाषाओँ में कुछ अनभिज्ञ होने के कारण लेखक सिर्फ मुंडारी गीतों के व्याख्यान दे सकते हैं। भाग्यवश, मुंडारी संगीत की विवेचना और स्वरलिपि भी काबिल फादर हिप्प और आमन ने बड़े ठिकाने के साथ आकर दिया है। याद रहे. एक कौमी कला की वार्ता दूसरी कौमी कलाओं पर भी लागू है।

मुंडारी संगीतों का सम्पूर्ण सम्पूट सुनना है कि मन फड़क, दिल कड़क और चित्त भड़क जाता है पर मजा यह कि गान से गवैयों का भी काफी परिचय मिलता है – जैसा गायन चुटकुला और भड़कीला होता है, वैसे ही गायक हंसमुख, चुस्त और चुलबुले रहते हैं। पर इनका चूलबूलापन सहज और भोला होता है। भले ही हिन्दू राग, क्लिष्ट, पौराणिक और अध्यात्मिक हो पर आदिवासी राग बनावट और गायन की दृष्टि में सरल और संक्षिप्त रहता है। यह उनकी जीवन की प्रतिछाया है।

ताल तो इतना सरल है कि आवर्त में साधारण “विभाग” (या ½ या ¼ ही) पाये जाते हैं, हाँ कभी- कभी ताल भी मिलता है। गमक का भी खूब प्रयोग होगा है, जिससे गायन में काम आते हैं। नाच (अस्थिर) राग, गंभीर या स्थिर राग की अपेक्षा बहुत अधिक है। सुखांत और दुखांत सरगम काफी मिलते हैं। मुंडारी गीतों में लालित्य ओर कलनाद सोलहों आने मौजूद हैं, तो क्यों गायक, श्रोतागण और नाचनेवाले इसकी खूबी पर बिनकौड़ी के दाम न बिक जाते? गीत में दो अंग होते हैं जो बराबर आवर्तों के होते। गाते समय यदि स्वरभंग या तालभंग हो तो बाजे की कलापूर्ण ठनकती ठोंक से ताल ठीक कर देते हैं, अथवा मात्रा या  स्वर को दीर्घ – हर्श्व कर लते हैं। नगाड़ा और “दूमंग” (बंदर, पृदंग) ही ऐसे वाद्य हैं जो गीत के प्राण समझे जाते हैं।

पहले कहा गया है कि गीत, नृत्य और वाद्य संगीत इसके आवश्यक अंग हैं। वाद्य से ताल और गीत से स्वर ग्रहण का अंगों की गति ही नृत्य कहलाता। यह हृद्योल्ल्स के अधिक्य से होता है। झारखण्ड नृत्य में सिर्फ धर्मिकोल्लास अथवा अभिदानोल्लास की मात्रा नहीं रहती, वरन सामाजिक आनन्दोत्सव की भी थोड़ी- बहुत व्यंजन होती है। किसी विद्वान ने कहा है कि यहाँ के नृत्य आदिवासी – धंधों के भी द्योतक होते है; अर्थात खेती बारी की क्रियाओं के रूपक, निशान या लक्षण होकर आते। पर यह मत विवादास्पद है, क्योंकी दुसरे विद्वान इन नृत्यों को केवल प्रसन्नता- प्रकाशन के विधान ही समझते हैं। हिन्दू- नृत्य के समान आदिवासी नाच, लास्य और तांडव में विभाजित नहीं होता। (नृत्य जब कोमल और मधुर होता, तब लास्य कहा जाता है। प्राय: स्त्रियों से किया जाता है। जब उत्कट होता है, तब तांडव कहलाता है – यह प्राय: पुरूषों से नाचा जाता है।) इससे नहीं सोचना चाहिए कि इस देश में कोमल और उत्कट नाच नहीं होते है। फिर स्वर, नेत्र मूखकृति और अंग से “भाव” का दिखाना थोड़ी मात्रा में होता है। यहाँ नाच खासकर आनन्द, मनोरंजन अथवा मन बहलाव की सहज युक्ति है जीसी आदिवासी परंपरा से खूब पटती है।

झारखण्ड – नृत्य का सम्पूर्ण विवेचना नहीं दिया जा सकता है। पर कतिपय दर्शन से भी विदेशी या पड़ोसी प्रान्त यह जान सकेंगे की आदिवासी कंगाल, श्रमजीवी अथवा परतंत्र होकर भी जीवन – श्रोत से कदापि तृप्त नहीं होते, उनका हृदय शुष्क नहीं रहता। इतने कष्टों के रहते हुए भी वे नाच- गान और आमोद-प्रमोद से नहीं चूकते। क्या यह स्वभाव किसी बड़प्पन का लक्षण नहीं हो सकता?

नृत्य अध्याय के द्वितीय विभाग में उराँव लोगों के नर्तर का विस्तार – पुर्वक वर्णन होगा। इसी से खड़िया और मुंडा नाच की टोह लगानी चाहिए। मुंडा लोगों के नाच का संक्षेप वर्णन तो यह है। मागे नाच और गेना नृत्य सरहुल तक जारी रहते, जो होते- होते चैत पहुँच जाते हैं। दो जदूर पर एक गाना गया जाता है। फिर आखेट का समय आने पर अथवा शिकार नाच गान दो तीन सप्ताहों तक चलते हैं सब लह्सूए की धूम सोहराई तक मच जाती है। जतरा गीत- नाच अगहन के आगे ही होकर आते हैं।

यों मुंडाओं के नाच-मंडल का साल समाप्त हो जाता है। नाचों की श्रेणियां, अंगों की विभिन्न गतियों पर निर्भर है। कोई- कोई नृत्य खड़े-बड़े संपन्न किए जाते (तिंगु-सूसून को) – म कोई कमर लचका-लचका कर (उगूंद- सूसून को) खड़े- नाच फिर खास खड़े नाच और दौड़- नाच में विभक्त होते हैं। उदाहरणार्थ : जदुर नाच, नट दौड़- दौड़कर वृत्ताकार नृत्य तय करते और लह्सूआ खड़े होकर करते हैं।

उराँव नाच

उराँव नाच – खड़िया लोगों के नाचों में ज्यादा मशहूर हैं: 1. हरियो, 2. किनभर, 3. हाल्का, 4. कू:ढिंग, 5. जदुर। और मुंडा लोगों में : 1. जरगा, 2. जदुर, 3. लह्सूआ, 4. जापी, 5. जतरा। अब इनका वर्णन तो लिखते ही बनता है, पर एक छोटे- मोटे पोथे ही में, यहाँ खान। उदाहरनार्थ, केवल उराँव नाच का उल्लेख किया जाता है।

उराँव नर्तन एक ग्राम्य मनोरंजन है, जिसपर सब जवानी-जोश के जीव लट्टू होते। धूमकूड़ियाँ के जनों का “ प्रोग्राम” तो इसके बिना पूरा नहीं होता। कतिपय नाचों में जैसे शादी के “आशीषदान” डोमकच और अक्सर माथा नाचों में सिर्फ औरतें शरीक होती हैं। पर ये अपवाद से हैं। अधिकांश नाचों में सब नवजवान और अधेड़, यों कहिए तीस साल के इधर रसज्ञ रसिक, रातों रात वृत्तवत और बाँहजोरी झूम- झूम कर अखाड़े की धूली बासों उड़ाते हैं। नर्तकी के थिरकते- थिरकते रस गहरा होते जाता है। इधर नाचने वाले उन्मत से हो जाते हैं, उधर दर्शक रंग पकड़ते हैं और वयोवृद्ध तक काबू हो जाते हैं – सच है बासी कढ़ी में उबाल आता है। नाच में बहुधा गाँव या मौजे ही के नट  रहते, पर कभी-कभी पड़ोस की बी लड़के- लड़कियाँ आ जाती हैं।

सब उराँव नृत्यों में यह समानता रहती है : नाच वृत्ताकार अथवा गोल चक्कर के होना चाहिए। इसकी प्रगति बाई-दाहिनी होती है। पहले दाहिने पैर, बाद बाएँ चलते है; सो भी सबके सब तत्काल ओर साथ –साथ चलाने का मतलब है ताल-स्वर का बैठाना और द्त्तचित्र कराना और यों आनंद की पियास बुझाना। वृत्ताकार से नाचना परंपरागत समझा जाता है। “ जतना-खड़िया” नृत्य को छोड़कर हर नाच के संग बाजे का ठनकना अवश्य है। यों तो बाजे के “बोल” (खोद-मु) पर ही नाच- गीत निर्भर रहते और ताल ही से नाचों की भिन्नता का परिचय मिलता है। भले ही पैरों की गति प्रांत-प्रांत विभिन्न हों, पर बाजों का बोल बिरले बदलता है।

अधिकांश नाचों में कई बाजे काम आते हैं, जैसे मंडल, नगेडा, झांझ, सोइखो, रूंज, ठेस्का, गूगूचू। युवकगण एक लंबा दूमदार पगड़ी में फूल और मोरपंख खोंसते, अंगों पर मालाओं के आभूषण लगात, कमर पर रंगदार और चौड़े लंगोटे काछ्ते हैं जो घूँघरूओं के साथ खनकते रहते हैं। ऐसे बने-ठने साज-बाज में इतराए चलना, अंगों को मटकाना, पैरों को कलापूर्वक चलाना, मानो मीठा दूध पीना है। इसके अलावे मोर पंख का गुच्छा, याक की पूँछ, “साईलो से भी अपने आप को संवारते हैं। युवतियों को तो इतने साजों से परेशानिं है। बस, अपने सर्वोत्तम गहने- जेवरों का दर्शन कराती और फूलों की काफी खबर लेती है।

अब उराँव नृत्यों की सूची देख लीजिए :

1. त्योहारिक नाच - (क) फ़गूआ और सरहुल (ख) करम

2. जतरा - यह नाच टोलियों में किया जाने वाला है इसके विभाग हैं – (क) जतरा (ख) खड़िया (ग) लूझसे (झूमैर, (ग) चिर्दी (जेठ जतरा)।

3. वैकल्पिक सामाजिक नाच – करम, सरहुल, जदुर, डोमकच, जेठ जतरा धुरिया अंगनी ।

4. वैवाहिक नाच - इन नाचों का पूरा पंचाग (कलेंडर) देना सहज नहीं है। क्योंकी इस विषय में प्रांत- प्रांत में मतभेद है। यों, माघ (जनवरी-फरवरी) को जब मांडर थाने में जदूरा नाच जारी है, गुमला सबडिविजन में सरहुल और जशपुर रियासत में डोमकच की चहल-पहल रहती है। फिर, जब जेठ (मई-जून) में जतरा मांडर में धूम मचाए रहता है, गुमला में सरहुल, जतरा और जशपुर में सरहुल, धुरिया और जतरा की वाह-वाह होती रहती है। हाँ, भादो (अगस्त-सितंबर) में सर्वत्र करम ही करम है। दुसरे- दुसरे मासों का हाल दूसरा ही है। पर मोटे तौर से कहा जा सकता है कि जेठ में जतरा- खड़िया, बरसात में करम और आगहन में चिर्दी (अगहन) खड़िया नृत्य होते हैं। चिर्दी- खड़िया और जतरा- खड़िया में केवल में केवल गीत के राग फरक होते हैं।

अब रहा नाचों का कुछ वर्णन। पर सब का नहीं हो सकता। जदुरा और जतरा ही लीजिए। इन दोनों को तो मुंडा और खड़िया जातियों भी खूब खेलती हैं, पर मुंडा जदुरा और उराँव जदूरा में कुछ अंतर है। जदूरा मुंह करके खड़ी हो जाती हैं। हर लड़की कतार की अन्य दो लड़कियों में अपनी बांहों जोड़ती है। इन दोनों पक्तियों के बीच बाजेवाले “केशरी” आ जाते हैं जो लड़कियों की  ओर ताकते हैं। (कभी- कभी दो ही कतारें रहतीं – बाजेवालों की और नाचनेवालों की)।

अब युवक एक गीत का “ओर” (पहले दो चरण) अलाप लेते हैं। जहाँ युवतियाँ एक ही बार सुनकर दुहरा गई तो बस, नाच लग गया। पर यदि प्रथम बार में वे “फेल” हो गई तो युवक सफलता प्राप्त होने तक दुहराते जाते हैं। अब “लेले धुर्र र्र र्र...........” की भयानक ध्वनि जवानों के कंठ से गूँज उठती है, जिसके बाद “कीर्तन” या “चढ़ावन” (गीत के अंतिम दो चरण) गाया जाता है। साथ ही लड़के बाजों पर ठोकरें जमाते हैं और कदम आगे बढ़ते हैं; जिसपर युवतियाँ, कीर्तन दुहराती हुई, तीन कदम पिछड़ती हैं। अब संजिदें (बाजेवाले) उनके पास एक कदम तक निकट आकार तीन कदम पीछे हटते हैं (यदि बाजेवाले) उनके पास एक कदम तक निकट आकर तीन कदम पीछे हटते हैं (यदि बाजेवालों के पीछे नाचने वालों के एक कतार लड़कियों के समान, सामने – पीछे आगे- पीछे होते हैं। फिर नर्तकियां दो कदम आगे बढ़ती हैं)। ऐसे ही कदम आगे- पीछे करते हैं । फिर नर्तकियाँ दो कदम आगे बढ़ती हैं)। ऐसे ही रह रहकर सब चरणों को पारी – पारी “ओर-कीर्तन” गाते हुए, हिसाबपूर्वक कदम आगे- पीछे करते हुए, गोल चक्कर लगाते हुए कलाविद नट जदूरा नाच करते हैं। पर इसको को देखकर ही समझना चाहिए।

स्रोत:   झारखण्ड समाज संस्कृति और विकास/ जेवियर समाज सेवा संस्थान, राँची

अंतिम सुधारित : 2/21/2020



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